यीशु बड़े वैज्ञानिक तरीके से लोगों को उपदेश देते थे। अज्ञानी, अनपढ तथा सीधे-सादे लोगों को वे छोटी-मोटी कथाओं के माध्यम से प्रेम, दया, क्षमा और भाईचारे का पाठ पढाते। उन्होंने लोगों को समझाते हुए सदैव यही कहा कि तुझे केवल प्रेम करने का अधिकार है। पडोसी को अपने समान ही समझो और चाहो। स्वार्थ भावना का त्याग करो।
अंतिम भोज के नाम से प्रसिद्ध घटना के समय भोजन के बाद वे अपने तीन शिष्यों पतरत, याकूब और सोहन के साथ जैतन पहाड़ के गेथ रोमनी बाग में गए। मन की बेचैनी बढते देख वे उन्हें छोड़कर एकांत में चले गए तथा एक खुरदुरी चट्टान पर मुंह के बल गिरकर प्रार्थना करने लगे। उन्होंने प्रार्थना में ईश्वर से कहा दुख उठाना और मरना मनुष्य के लिए दुखदायी है किंतु हे पिता यदि तेरी यही इच्छा हो तो ऐसा ही हो। लौटकर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा वह समय आ गया है जब एक विश्वासघाती मुझे शत्रुओं के हाथों सौंप देगा। इतना कहना था कि यीशु का एक शिष्य उनकी गिरफ्तारी के लिए सशस्त्र सिपाहियों के साथ आता दिखाई दिया। जैसा कि ईसा मसीह ने पहले की कह दिया था उनको गिरफ्तार कर लिया गया। न्यायालय में उन पर कई झूठे दोष लगाए गए। यहां तक की उन पर ईश्वर की निंदा करने का आरोप लगाकर उन्हें प्राणदंड देने के लिए जोर दिया गया।
यीशु के शिष्य ने विश्वासघाती होने के कारण आत्महत्या कर ली। सुबह होते ही यीशु को अंतिम निर्णय के लिए न्यायालय भेजा गया। न्यायालय के बाहर शत्रुओं ने लोगों की भीड़ एकत्रित की और उनसे कहा कि वे पुकार-पुकार कर यीशु को प्राणदंड देने की मांग करें। ठीक ऐसा ही हुआ। न्यायाधीश ने लोगों से पूछा इसने क्या अपराध किया है? मुझे तो इसमें कोई दोष नजर नहीं आ रहा है। किंतु गुमराह किए हुए लोगों ने कहा कि यीशु को सूली दो। अंतत :उन्हें सूली पर लटका कर कीलों से ठोक दिया गया। हाथ व पैरों में ठुकी कीले आग की तरह जल रही थीं। ऐसी अवस्था में भी ईसा मसीह ने परमेश्र को याद करते हुए प्रार्थना की कि हे मेरे ईश्वर तूने मुझे क्यों अकेला छोड़ दिया? इन्हें माफ करना क्योंकि ये नहीं जानते ये क्या कर रहे हैं। कुछ घंटों उनका दिव्य शरीर क्रूस पर झूलता रहा। अंत में उनका सिर नीचे की ओर लटक गया और इस तरह आत्मा ने शरीर से विदा ले ली। मृत्यु के तीसरे दिन एक दैवीय चमत्कार हुआ और यीशु पुन: जीवित हो उठे। मृत्यु के उपरांत पुन: जीवित हो जानाउनकी दिव्य शक्तियों एवं क्षमताओं का प्रतीक था।
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